“क्या आदिवासी हिन्दू हैं? – एक धार्मिक, ऐतिहासिक और संवैधानिक पड़ताल”


प्रस्तावना

भारत की विविधता उसकी सबसे बड़ी पहचान है – भाषाओं में, संस्कृति में, और धर्मों में। लेकिन जब हम आदिवासियों की धार्मिक पहचान की बात करते हैं, तो एक बड़ा प्रश्न सामने आता है – क्या भारत के आदिवासी हिन्दू हैं? यह सवाल सिर्फ धार्मिक नहीं, संविधान, राजनीति, इतिहास और समाज से भी जुड़ा हुआ है।


1. ऐतिहासिक दृष्टिकोण – कौन हैं आदिवासी?

  • आदिवासी शब्द का अर्थ ही होता है – “मूल निवासी”
  • ये समुदाय वैदिक सभ्यता से भी पहले भारत में बस चुके थे।
  • इनके देवता हैं – बड़ादेव, बूढ़ादेव, गौरा-गौरी, जंगल, जल, पहाड़, प्रकृति, जो मुख्यधारा हिन्दू धर्म के देवताओं से अलग हैं।
  • इनके जीवन में ब्राह्मणवाद, मंदिर, शास्त्र, वेद-पुराण की कोई भूमिका नहीं थी।

इससे स्पष्ट है कि आदिवासी एक स्वतंत्र सांस्कृतिक समुदाय रहे हैं, जिनकी धार्मिक परंपराएं हिन्दू धर्म से भिन्न हैं।


2. धार्मिक दृष्टिकोण – क्या आदिवासी पूजा-पद्धति हिन्दू धर्म जैसी है?

  • हिन्दू धर्म कोई एक किताब, पैगंबर या संस्थापक आधारित धर्म नहीं है। यह परंपराओं का समूह है।
  • कुछ लोग तर्क देते हैं कि आदिवासी भी मूर्ति या प्रकृति की पूजा करते हैं, इसलिए वे हिन्दू हैं।
  • लेकिन यह एक अतिसरलिकरण (oversimplification) है।

आदिवासियों की पूजा पद्धति का मूल आधार है – प्रकृति, पूर्वजों की आत्मा, सामुदायिक संस्कार। न कि कोई वेद-पुराण या कर्मकांड।


3. संवैधानिक दृष्टिकोण – क्या संविधान ने आदिवासियों को हिन्दू माना है?

  • भारतीय संविधान ने आदिवासियों को “अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes)” के रूप में मान्यता दी है, न कि धर्म के आधार पर।
  • संविधान के अनुच्छेद 244(1) के तहत उन्हें पाँचवी अनुसूची में विशेष सुरक्षा मिली है।
  • सुप्रीम कोर्ट के “केलास बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011)” के फैसले में स्पष्ट कहा गया:
    “आदिवासी भारत के असली मालिक हैं।”
  • जनगणना में लाखों आदिवासी अपने धर्म को “अन्य”, “आदिवासी धर्म”, या “सारना”, “गोंड धर्म”, “कुड़ुख” के रूप में दर्ज करते हैं।

इससे साबित होता है कि आदिवासी स्वतन्त्र धार्मिक पहचान रखते हैं।


4. राजनीतिक दृष्टिकोण – क्यों आदिवासियों को हिन्दू साबित किया जाता है?

  • आरएसएस जैसे संगठन आदिवासियों को हिन्दू के रूप में प्रस्तुत करते हैं ताकि वे उनकी जनसंख्या आधार बढ़ा सकें।
  • आदिवासी देवताओं को हिन्दू देवताओं से जोड़ने की कोशिश की जाती है –
    जैसे बड़ादेव = शंकर, धुरवा = हनुमान, गौरा = पार्वती
  • कई आदिवासी संगठन जैसे गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, झारखंड पार्टी, सारना धर्म समिति इस विचार का विरोध करते हैं।

यह एक सामाजिक सांस्कृतिक ‘विलय’ की प्रक्रिया है, जिससे आदिवासी पहचान कमजोर होती है।


5. ‘वनवासी’ शब्द – एक राजनीतिक शब्दजाल

  • आदिवासी” शब्द उनकी प्राचीनता, आत्मनिर्भरता और मूल निवास को दर्शाता है।
  • परन्तु उन्हें “वनवासी” कहने का मतलब है – जंगल में रहने वाले, अनगढ़, असभ्य
  • यह शब्द संघ की सोच से जुड़ा हुआ है, जो आदिवासियों को हिन्दू समाज का हिस्सा बताने के लिए इस्तेमाल होता है।

6. आदिवासी पहचान की रक्षा क्यों ज़रूरी है?

  • यदि किसी समाज की भाषा, संस्कृति और धार्मिक विश्वास को छीन लिया जाए, तो वह अपनी जड़ों से कट जाता है।
  • आदिवासी सिर्फ धार्मिक नहीं, भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषायी विविधता के संरक्षक हैं।
  • जैव विविधता, जंगल, जल, जमीन की रक्षा में उनका अमूल्य योगदान है।

आदिवासी हिन्दू नहीं हैं – वे भारत के मूल निवासी, स्वतंत्र धार्मिक पहचान वाले समुदाय हैं।
उन्हें हिन्दू कहकर राजनीतिक संख्या में जोड़ा जाना, उनके अस्तित्व और अस्मिता के साथ अन्याय है।

जो समाज अपने अस्तित्व को नहीं पहचानता, वह भविष्य में मिटा दिया जाता है।


आदिवासी नारे/कविताएँ (जागरूकता हेतु):

“हम आदिवासी हैं, न कि हिन्दू-मुसलमान,
हमारी भाषा, संस्कृति है हमारी पहचान।”

“गोंड, मुंडा, भील हमारी जात,
न तो वेद, न शास्त्र, न कोई प्रभात।
धरती है माँ, जंगल है धर्म,
हम हैं भारत के आदि-अनमोल कर्म।”


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