
बेटी… ये शब्द ही अपने भीतर एक पूरी दुनिया समेटे हुए है। वह केवल एक संतान नहीं होती, वह घर की मुस्कान होती है, आंगन की खिलखिलाहट होती है और माता-पिता की आंखों की चमक होती है। बेटी का जन्म जैसे घर में बहार आ जाना हो, जैसे पतझड़ में अचानक बसंत आ गया हो।
जब एक नन्ही-सी बेटी पहली बार “माँ” या “पापा” कहती है, तो मानो उस शब्द में सारा जीवन समाहित हो जाता है। उसकी कोमल उंगलियां जब आपके हाथों को थामती हैं, तो एक ऐसा बंधन बनता है जिसे शब्दों में बांधना मुश्किल होता है।
लेकिन इस स्नेह और ममता से भरे रिश्ते के बावजूद, समाज में बेटियों को अब भी संघर्ष करना पड़ता है। कई स्थानों पर उन्हें बोझ समझा जाता है, शिक्षा से वंचित रखा जाता है, और उनकी इच्छाओं को दबा दिया जाता है। यह एक ऐसी सच्चाई है जो दिल को चीर जाती है।
क्या बेटी होना कोई अपराध है?
नहीं, बेटी होना तो एक वरदान है। वह घर को जोड़ती है, रिश्तों को सींचती है और अपने सपनों से पूरे परिवार को ऊंचाइयों तक पहुंचा सकती है। एक बेटी जब पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनती है, तो वह सिर्फ अपना नहीं, अपने माता-पिता का भी सिर गर्व से ऊंचा कर देती है।
समय आ गया है कि हम बेटियों को सिर्फ ‘दया’ नहीं, ‘अधिकार’ दें। उन्हें वह हर अवसर मिले जो एक बेटे को मिलता है – शिक्षा का, स्वतंत्रता का, सपनों को साकार करने का।
बेटी को बोझ नहीं, वरदान समझें।
क्योंकि जब बेटी मुस्कुराती है, तो पूरा घर रोशनी से भर जाता है।